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बसंत के महीने में जब खूबसूरत से पीले गुल हर तरफ़ खिल उठते हैं, तो ज़हन भी ख़ुशी से झूम उठता है| पर ज़िंदगी में हरदम तो बसंत नहीं रहता है ना? जब बसंत बीत जाता है, तो आफ़ताब के तेज से हम क्या, क़ुदरत भी झुलस उठती है| यूँ तो बारिश भी मन को…
बसंत के महीने में जब खूबसूरत से पीले गुल हर तरफ़ खिल उठते हैं, तो ज़हन भी ख़ुशी से झूम उठता है| पर ज़िंदगी में हरदम तो बसंत नहीं रहता है ना? जब बसंत बीत जाता है, तो आफ़ताब के तेज से हम क्या, क़ुदरत भी झुलस उठती है| यूँ तो बारिश भी मन को आशिकाना बना देती है, पर कभी-कभी वो भी बाढ़ साथ लेकर आती है| और फिर, ठंड के मौसम में तो हर तरफ धुंध ही धुंध छा जाती है| यदि हम अपने ज़हन को ख़ुशी से लबरेज़ कर दें, और उसमें ही बसंत भर दें, तो चाहे बाहर कितनी ही विपरीत परिस्थितियाँ क्यों न हों, मन कभी हार नहीं मानेगा और मुस्कुराते हुए गम के हर दरिया को पार कर लेगा| अपने इन्हीं एहसासों के मोतियों को पचास नज़्मों की लड़ियों में पिरोकर, लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड होल्डर, नीलम सक्सेना चंद्रा, अपने काव्य संग्रह – “कई बसंत देखे हैं मैंने” में पेश कर रही हैं|
Weight | 0.120 g |
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Dimensions | 15 × 1 × 21 cm |
Type | |
Author | |
Language | |
ISBN | 978-9387939523 |
Pages | 72 |
Date of Publishing | 25/8/2020 |
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